द्वी मिन्टौ मौन’ एक सम्भावनाशील रचनाकार का परिचय कराती कविताएँ-

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 ‘द्वी मिन्टौ मौन’ एक सम्भावनाशील रचनाकार का परिचय कराती कविताएँ



‘द्वी मिन्टौ मौन’ नाम से युवा कवि आशीष सुन्दरियाल की गढ़वाली कविताओं का पहला संग्रह प्रकाशित हुआ है।संग्रह को पढ़कर कहा जा सकता है कि आशीष के रूप में गढ़वाली को एक सम्भावनाशील रचनाकार मिला है।

आशीष गढ़वाली की नई पीढ़ी अर्थात् शोसल मीडिया के दौर के प्रतिनिधि कवि हैं।आशीष का जन्म नब्बे के दशक के शुरुआत में उस दौर में हुआ, जब गढ़वाली कविता अपनी  पारम्परिक शैली से इतर खुद को अभिव्यक्त करने के लिए संरचनात्मक और कथ्य दोनों स्तर पर करवट बदल रही थी। पहले कन्हैयालाल डंडरियाल जी ने कविता को नया स्वरूप दिया और बाद में नेत्र सिंह असवाल जी ने गढ़वाली कविता को एक नई शक्ल और ऊर्जा प्रदान की ।

नेत्र सिंह असवाल ने सन् 1988 में अपने कविता संग्रह ‘ढान्गा से साक्षात्कार’ के जरिए गढ़वाली कविता को कथ्य और संरचना में बदलाव के साथ साथ नये तेवर भी दिए।सम्भवतः यह भी संयोग है कि आशीष के कविता संग्रह ‘द्वी मिन्टौ मौन’ की भूमिका भी नेत्र सिंह असवाल जी ने लिखी है।

गढ़वाली कविता ने सन् 1905 से चलते हुए आज 115 साल का सफर तय कर लिया है। इन सौ वर्षों से भी अधिक समय काल में गढ़वाली कविता ने अनेक दौर देखे हैं।सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ   जागरण के दौर से शुरू हुई गढ़वाली कविता समय के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए आज देश और दुनिया की समकालीन कविता के साथ आने के लिए निरन्तर आगे बढ़ रही है।गढ़वाली कविता समाज की हर गतिविधि पर महीन नजर रखते हुए समाज के सरोकारों से सक्रिय रूप से जुड़ते हुए समाज को एक दिशा देने की भूमिका में आ रही है।

आशीष की कविताएँ काव्य-भाषा में नया परिवेश, नयी शब्दावली ,नये बिम्ब,नया कलेवर प्रतिबिम्बित करती हुई नजर आ रही हैं। आशीष वरिष्ठ लेखकों के साथ मिलकर लम्बे समय से काम करते आ रहे हैं। स्वाभाविक सी बात है कि कवि को उनके अनुभव का लाभ भी मिला होगा। 

गढ़वाली कविता अब उस दौर में प्रवेश कर चुकी है,जहाँ से आज की माडर्न लाइफ कविता के सरोकारों में अपनी जगह बना रही है।आधुनिक जीवन की कशमकश, रोजगार की तलाश,भागम-भाग,तनाव भरी ज़िन्दगी और निरन्तर बदलती हुई जीवनशैली कविता के विषय बनते जा रहे हैं।कवि जो देख,भोग रहा है, वही लिख भी रहा है। गाँव, खलिहान, खेती,कृषि कार्य, पशुपालन, सामाजिक सहभागिता में आ रहे बदलाव की ओर इशारा किया गया है।

वह साफ साफ लिखता भी है-

हम बि पक्का अंग्रेज बणग्या,कमी नि रैगे क्वी।

आशीष ने अपनी कविता में आधुनिक जीवन के विषयों के समावेश के साथ ग्रामीण समाज की जीवनचर्या और उनके जीवनमूल्यो को अच्छी तरह से अभिव्यक्त किया है। पलायन,चुनाव, बेरोजगारी, राजनीति, भ्रष्टाचार,शराब गढ़वाली कविता के स्थाई भाव रहे हैं और दुर्भाग्य से उत्तराखण्ड की स्थायी समस्याएं भी कुछ यही हैं।

‘कुछ ब्वन्ना छन’ शीर्षक की कविता नये  विचार की कविता है,,,,,,,,

छुय्या-छन्छेडा/ धारा-पन्द्यारा/बाटा-घाटा/भीटा-पाखा/ कुछ ब्वन्ना छन,,,,,,,,

सान्यू समझा/बीन्गा बाच/पहाड़ आज/ कुछ ब्वन्ना छन।

इस कविता में पहाड़ के कर्ताधर्ताओं से उम्मीद की जा रही है कि पहाड़ के इशारों को समझो,लेकिन जब सरकारें दिशाहीन हो जाय,ऐसे में विकास की आवाज को कौन सुनेगा–?

सामान्यत:पहाड़ की छवि कर्मवीर की रही है, लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल रही हैं,उन्हीं के शब्दों में —

रीती कूड़ी/पुगडी बान्जी/ब्यठुला 

लमडेर/ बैख झान्झी/ हमारा यख।

जनसामान्य विकास चाहता है, सामान्य सुविधाएँ चाहता है।’घर्या डागटर’ कविता के जरिए पहाड़ के जनसामान्य इसी बदलती हुई मानसिकता पर तीखा प्रहार किया गया है।

‘गीत गूंगो खुणि’ जैसी रचना के माध्यम से वह समाज के नाकारेपन पर ब्यन्ग्य करने से भी नहीँ चूकता-

हाड़-मास का थुपडा ये बिना ज्यू-जान का छन,

कोरा कागज का टुकड़ा ये बिना ज्ञान-ध्यान का छन।

गस गुमान रचना में वे आज के युवा की पीड़ा और हकीकत बयां करते हैं।

हट भै,मुण्डारू,सदानी जेल, सुपन्या, मेरा गौ मा जैसी गज़ल शैली की अच्छी रचनाए हैं।संग्रह की ज्यादातर कविताए अतुकान्त हैं। इनमें कुछ क्षणिकाएँ बहुत चुटीली बन पड़ी हैं।

बहुत कम शब्दों में ब्यक्त ये क्षणिका गागर में सागर लिए हुए है जैसे –

राजनीति का मूसा/तै देखीकि/कानून का बिराळन् बोले/बल मेरो त आज ब्रत च।

आशीष की अधिकांश कविताओं में पलायन का दर्द और पलायन के कारण पहाड़ में आई विसंगतियों को रेखांकित किया गया है।कई 

जगह अंग्रेजी के शब्द एक बहाव में शामिल हुए हैं।मोबाइल,ए टी एम, फेसबुक, सेलीब्रिटी,फैन,टेन्शन जैसे बहुत से शब्द। 

गस गुमान रचना में वे आज के युवा की पीड़ा और हकीकत बयां करते हैं।

स्वीणा और गोळी फैण्टेसी शैली में लिखी रचनाएँ हैं,अच्छी हैं।वैसे गोळी रचना सुखद अन्त में भी उतनी ही अच्छी लगती। पुस्तक का शीर्षक  गढ़वाली के पाठकों को अटपटा सा लग सकता है और ठीक उसी तरह शीर्षक कविता भी।खैर! 

कविताओं में व्यन्ग्य का स्वर मुखर होकर उभरा है।इस ब्यन्ग्य की आत्मा में कहीं न कहीं कवि के भीतर का विद्रोह और उनके अन्दर की ऊर्जा के बीच द्वन्द दिखाई देता है।वे अपने समाज केलिए कुछ करना चाहते हैं, लेकिन उनकी दृष्टि में परिस्थितियाँ नकारात्मक बन रही हैं।एक कविता में कुछ नेशनल और इण्टरनेशनल घटनाओं को रोचक ढंग से पिरोया है आशीष ने।

आशीष की कविताओं में प्रयुक्त भाषा से अहसास होने लगा है कि अब नये दौर की गढ़वाली भाषा में परिवर्तन अनिवार्य और स्वाभाविक रूप से दिखाई देने वाले हैं।

पुस्तक प्राप्ति के लिए कवि से सम्पर्क किया जा सकता है।9873419726, समय साक्ष्य से प्रकाशित इस संग्रह का मूल्य रु0125/- रखा गया है।

(पुस्क समीक्षक डॉ वीरेंद्र सिंह पंवार)

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