जाग मनखि जाग-न लगो हर्या बमों मा आग
दीपक कैन्तुरा
जाग- मनखि जाग
जाणि बुझिक क्ये लगाणु युं हर्या बणों मा आग
त्वै पता नी कख रोला चखुला घिन्योंड़ा कख रोला रिक बाग
वक्त छैंच सुधरी जा जाग मनखि जाग
जू बणौं कू थौ सारु
जख हर्या बण था आज उड़ाणु वख खारु
न रै कखि लखड़ू घास न गोरु- भैंसू कू चारु
रुप्यों की धोंस न जमों
बिना डाली ब्यूटूयों कू नि चलण्या गुजारु
जख ब्याली हर्रया डांडा छा आज वख उड़ाणु खारु
द्यखा ना ना बोदि- बोदि भी सारु जंगल जगणु च
यनि लगली आग ओणवालू वक्त भारी औखू लगणु च
मौळ माटू भी ब्यवक्त की बरखन बगणु च
मनखि की करतूत च या की आज हर्यू – भर्यू डांडू जगणु च
दादा परदादा की रोप्यों की ड़ाल्यों कू अंगार ह्वेगी
चौतरफा ह्यूचला काठों कू संघार ह्वेगी
हवा पाणी भी बेकार ह्वेगी
अब- प्यण कू पाणी नी मिलणु इन वक्त एगी
औंण वाळा वक्त हममा रोलू सभी धाणी
पर नी मिललू सुद्ध हवा पाणी
यना हर्यां – भर्यां बौंण आग का भेंट चडलू
यू दीपक कैन्तुरा कू विचार च
जख- हर्यां- भर्यां बौंण च वख भौल सांस लेणक आक्सीजन सैलेंडर लिजाण प्वडलू