लोक संस्कृति के संवाहक उत्तराखंड के गांधी इंद्रमणि बडोनी को उनकी जयंती पर नमन

(गिरीश बडोनी की कलम से)

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उत्तराखंड के गांधी इंद्रमणी बड़ोनी |

लोक संस्कृति के संवाहक इंद्रमणि बडोनी ///////////आप सभी को उत्तराखण्ड राज्य लोक संस्कृति दिवस की हार्दिक बधाई ! यह दिवस हमारे राज्य में उत्तराखंड के गाँधी कहलाये जाने वाले स्वर्गीय इंद्रमणि बडोनी के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है जिन्होंने उत्तराखंड पृथक राज्य आंदोलन का अहिंसात्मक नेतृत्व किया और अलग राज्य के लिए आंदोलित उत्तराखंडियों को *आज दो अभी दो* के नारे के साथ अपने करिश्माई व्यक्तित्व से एक सूत्र में बांध कर रखा। इंद्रमणि बडोनी सामाजिक और राजनैतिक जीवन में पदार्पण से पहले गांवो में आयोजित रामलीलाओं और नाटकों में खूब सक्रिय रहे। अपनी सामाजिक और राजनैतिक प्रतिबद्धताओं के बाद भी उन्होंने रंगमंच से स्वयं को जोड़े रखा। लोक वाद्य , लोक साहित्य, लोक भाषा, लोक शिल्प और लोक संस्कृति के संरक्षण, संवर्द्धन और हस्तांतरण के लिए वे सदैव प्रयत्नशील रहे। पुराने लोग उनका जिक्र आने पर उनकी दाढ़ी, उनकी आवाज, उनकी सादगी, उनकी फकीरी, लोक भोज्य पदार्थों के प्रति उनकी चाह और लोक पहनावे में उनकी सजीला छवि का वर्णन करते नहीं अघाते। लोक संस्कृति के प्रति इंद्रमणि बडोनी जी के प्रेम और इस दिशा में उनके द्वारा किए गए बुनियादी और सार्थक प्रयासों को देखते हुए उत्तराखंड सरकार ने उनके जन्म दिवस 24 दिसंबर को सम्पूर्ण राज्य में *उत्तराखंड राज्य लोक संस्कृति दिवस* के रूप में मनाये जाने की राजाज्ञा जारी की। उत्तराखंड पृथक राज्य आंदोलन के ध्वजवाहक, पहाड़ पुत्र, उत्तराखंड के गाँधी स्वर्गीय इंद्रमणि बडोनी का जन्म दिवस पूरे राज्य में हर्षोल्लास के साथ *उत्तखण्ड राज्य लोक संस्कृति दिवस* के रूप में मनाया जाना अत्यधिक हर्ष का विषय है। उत्तराखंड पृथक राज्य आन्दोलन के पुरोधा,स्वर्गीय इन्द्रमणि बडोनी जी को उनके 96 वें जन्म दिवस पर हार्दिक श्रद्धांजलि और कोटि- कोटि नमन !
प्रस्तुत है इंद्रमणि बडोनी जी का जीवन परिचय जिसमें लोक संस्कृति के प्रति उनका लगाव और सम्मान स्पष्ट रूप से और बलवती होकर उभरता है :
स्वर्गीय इन्द्रमणि बडोनी का जन्म टिहरी गढ़वाल जिले के अखोड़ी गाँव ( घनसाली ) में 24 दिसम्बर 1925 को हुआ था इनके पिताजी का नाम श्री सुरेशानंद बडोनी तथा माँ का नाम श्रीमती कालू देवी था .यह एक बहुत ही गरीब परिवार था पिता सुरेशानंद बहुत ही सरल व्यक्ति थे पुरोहित कार्य करते थे जो कि उस समय आजीविका का आज के समय जैसा कार्य नहीं था. दक्षिणा में ठीक ठाक आर्थिक स्थिति वाले वाले यजमान ही उस समय के हिसाब से मात्र चव्वनी ही दे पाते थे अन्न का उत्पादन भी कम था जौ और आलू ही ज्यादा मात्रा में पैदा होते थे .ऐसी स्थिति में बड़े परिवार क़ी आवश्यकतावो क़ी पूर्ति हेतु उनके पिताजी साल में कुछ समय के लिए रोज़गार हेतु नैनीताल जाते थे.
शिक्षा दीक्षा:
ऐसी पारिवारिक परिस्थितियो में स्वर्गीय इन्द्रमणि बडोनी जी ने कक्षा चार क़ी शिक्षा अपने गाँव अखोड़ी से प्राप्त की तथा मिडिल ( कक्षा 7) उन्होंने रोड धार से उत्तीर्ण क़ी उसके बाद वे आगे क़ी पढाई के लिए टिहरी मसूरी और देहरादून गए
बचपन :
बचपन में इन्होने अपने साथियों के साथ गाय , भैंस चराने का काम भी खूब किया.पिताजी क़ी जल्दी मौत हो जाने के कारण घर क़ी जिम्मेदारी आ गई ! कुछ समय के लिए वे बॉम्बे भी गए . वहां से वापस आकर बकरिया और भैंस पालकर परिवार चलाया . बहुत मेहनत से अपने दोनों छोटे भाइयो श्री महीधर प्रसाद और श्री मेधनी धर को उच्च शिक्षा दिलाई.
सामाजिक जीवन:
अपने गाँव से ही उन्होंने अपने सामाजिक जीवन को विस्तार देना आरम्भ किया, पर्यावरण संरक्षण के लिए उन्होंने गाँव में अपने साथियों क़ी मदद से कार्य किये. उन्होंने जगह जगह स्कूल खोले…उनके द्वारा आरम्भ किये गए स्कूल आज खूब फल फूल रहे है …इनमें से कई विद्यालयों का प्रांतीयकरण एवं उच्चीकरण भी हो चुका है.
खेल: इनकी खेलो में भी रूचि थी . बालीबाल के अच्छे खिलाडी थे और गाँव के सभी नौजवानों के साथ बालीबाल खेलते थे। क्रिकेट मैच टीवी पर बड़े शौक से देखते थे
सांस्कृतिक कार्यक्रम नियोज़न:
श्री इन्द्रमणि बडोनी जी रंगमंच के बहुत ही उम्दा कलाकार थे , गाँव में उन्होंने सांस्कृतिक कार्यकर्मो के साथ ही छोटी छोटी टोलिया बनाकर स्वछता अभियान चलाये , अपनी बात को बहुत ही आसानी से संप्रेषित करने क़ी कला उनमें थी
निर्देशन:
उनमें निर्देशन क़ी विधा कूट कूट कर भरी थी , माधो सिंह भंडारी नाटिका का मंचन उन्होंने जगह जगह किया . साथ ही उनका प्रबंधन और नियोज़न शानदार था उन्होंने अपने गाँव अखोड़ी के साथ साथ अन्य गांवों में भी रामलीला का मंचन कराया.
प्रबंधन:
टिहरी प्रदर्शनी मैदान में आयोजित कार्यक्रमों में बडोनी जी द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ साथ विभिन प्रकार के स्टाल भी लगवाए गए. उनके साहित्य, संगीत , सामाजिक जागरूकता से जुड़े इन कार्यक्रमों का फलक बहुत व्यापक रहा
सामाजिक दायित्व:
उन्होंने जगह जगह स्कूल खोले उनके द्वारा आरम्भ किये गए स्कूल आज खूब फल फूल रहे है …कई विद्यालय प्रांतीयकरण भी हो चुके है .रंगमंच क़ी टीम , नृत्य नाटिका , सांस्कृतिक गतिविधिओ से प्राप्त धनराशि को विद्यालयों क़ी मूल जरूरतों एवं मान्यता प्राप्त करण्ड आदि पर खर्च किया गया .
संगीत साहित्य :ये गीत भी लिखते थे , हारमोनियम और तबला भी बजाते थे. उनका हारमोनियम आज भी उनके घर अखोड़ी में सुरक्षित है. संगीत में उनके गुरू लाहौर से संगीत क़ी शिक्षा प्राप्त श्री जबर सिंह नेगी ( हडियाना हिंदाव टिहरी ) थे। श्री जबर सिंह जी अखोड़ी में एक माह रहे और अन्य लोगो को भी संगीत क़ी शिक्षा दी
दिल्ली में गणतंत्र दिवस :
इनके जीवन में एक महत्वपूर्ण पड़ाव वह भी आया जब उन्होंने 1956 में लोकल कलाकारों के साथ दिल्ली में गणतंत्र दिवस से पहले तत्कालीन प्रधान मंत्री नेहरु जी के सामने केदार नृत्य प्रस्तुत किया ( इस नृत्य को सरो, चवरा आदि नामों से भी जाना जाता है यदि आप कभी अखोड़ी जायेंगे तो इस दल के कुछ लोगो से आपकी भेंट हो जायेगी
राजनीतिक कार्यकाल :इंद्रमणि बडोनी 1956 में जखोली विकास खंड के पहले ब्लॉक प्रमुख बने ….इससे पहले वे गाँव के प्रधान थे. 1967 में निर्दलीय प्रत्यशी के तौर पर विजयी होकर देवप्रयाग विधानसभा सीट से उत्तरप्रदेश विधानसभा के सदस्य बने. 1969 में अखिल भारतीय कांग्रेस के चुनाव चिन्ह दो बेलो क़ी जोड़ी से वे दूसरी बार इसी सीट से विजयी हुए .तब प्रचार में ” बैल देश कु बडू भारी किसान , जोंका कंधो माँ च देश क़ी आन ” ये पंक्तिया गाते थे .1974 में वे ओल्ड कोंग्रेस के प्रत्याशी के रूप में गोविन्द प्रसाद गैरोला जी से चुनाव हार गए.1977 में एक बार फिर निर्दलीय के रूप में जीतकर तीसरी बार देवप्रयाग सीट से विधान सभा पहुंचे। 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए पर वे चुनाव नहीं लड़े . 1989 में ब्रह्मदत्त जी के साथ सांसद का चुनाव वे हार गए थे.
उत्तराखंड आन्दोलन:
1979 से ही वे उत्तराखंड अलग राज्य निर्माण के लिए सक्रिय हो गए थे.वे पर्वतीय विकास परिषद् के उपाध्यक्ष भी रहे। समय- समय पर वे पृथक राज्य के लिए अलख जगाते रहे। 1994 में पौड़ी में उनके द्वारा आमरण अनशन शुरू किया गया। सरकार द्वारा साम, दाम, भेद के बाद दंड क़ी नीति अपनाते हुए उन्हें मुज्जफरनगर जेल में डाल दिया गया. उसके बाद 2 सितम्बर और 2 अक्टूबर का काला इतिहास आप सभी भली भांति जानते हैं ……
उत्तराखंड के गांधी :
उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान कई मोड़ आये. इस पूरे आन्दोलन में वे केंद्रीय भूमिका में रहे. इस आन्दोलन में उनके करिश्माई नेतृत्व , सहज सरल व्यक्तित्व , अटूट लगन , निस्वार्थ भावना , और लोगो से जुड़ने क़ी गज़ब क्षमता के कारण ही B B C और washington पोस्ट ने उन्हें पर्वतीय गाँधी क़ी संज्ञा दी !!!
उत्तराखंड राज्य:
9 नवम्बर 2000 को उत्तराखंड राज्य भारतवर्ष के नक़्शे पर अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आया. लेकिन पहाड़ी जन मानस क़ी पीड़ा को समझने वाला, जन-नायक, इस आन्दोलन का ध्वजवाहक , महान संत, उत्तराखंड राज्य का सपना आंखो में संजोये इससे पहले ही 18 अगस्त 1999 को अपने निवास बिट्ठल आश्रम ऋषिकेश में चिर निंद्रा में सो गया !!!
“जिन्हें हासिल है तेरा कुर्ब खुशकिस्मत सही लेकिन तेरी हसरत लिए मर जाने वाले और होते हैं ”
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