देवभूमि उत्तराखंड में 125 साल से आयोजित हो रही रामलीला यूनेस्को की धरोहर है। गढ़वाल मंडल मुख्यालय पौड़ी में होने वाली रामलीला का पूरे राज्य में पहला स्थान है। यूनेस्को की धरोहर बन चुकी यह ऐसी रामलीला है, जिसने विभिन्न संप्रदायों के लोगों को आपस में जोड़ने का काम तो किया ही, आजादी के बाद समाज में जागरुकता लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है… तो चलिए जानते है इस रामलीला की खासियत
1897 में पहली बार हुआ कांडई गांव में रामलीला मंचन
1897 में पौड़ी में स्थानीय लोगों के प्रयास से कांडई गांव में पहली बार इस रामलीला का मंचन हुआ था। लेकिन इस रामलीला को 1908 में वृहद स्वरूप दिया गया। जिसमें भोलादत्त काला, अल्मोड़ा निवासी तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षक पूर्णचंद्र त्रिपाठी, क्षत्रिय वीर के संपादक कोतवाल सिंह नेगी और साहित्यकार तारादत्त गैरोला ने अहम भूमिका निभाई।
आजादी के बाद समाज में लाई जागरुकता
रामलीला ने आजादी के बाद समाज में जागरुकता लाने में अहम भूमिका निभाई। 1943 तक रामलीला का मंचन सात दिन तक होता था, लेकिन फिर इसे शारदीय नवरात्र में आयोजित कर दशहरा के दिन रावण वध की परंपरा भी शुरू की गई। बता दें कि इस रामलीला में दृश्य के अनुरूप सेट लगाए जाते हैं। यहीं कारण है कि हनुमान का संजीवनी बूटी लाते समय हिमालय आकाश मार्ग से उड़ते हुए दिखाया जाना काफी लोकप्रिय है।
ठेठ पहाड़ी बोली में पढ़ी जाती हैं चौपाइयां
इस रामलीला में नौटंकी शैली के अनुसार मंचन किया जाता था, लेकिन साल 1945 के बाद इस शैली का स्थान रंगमंच की पारसी शैली ने ले लिया। साल 1957 में पौड़ी का विद्युतीकरण होने के बाद रामलीला मंचन का स्वरूप भी निखरा। इसके संगीत को शास्त्रीयता से जोड़ा गया। स्क्रिप्ट में बागेश्री, विहाग, देश, दरबारी, मालकोस, जैजवंती, जौनपुरी जैसे प्रसिद्ध रागों पर आधारित रचनाओं का समावेश किया गया। गीतों के पद हिंदी, संस्कृत, उर्दू, फारसी, अवधी, ब्रज के अलावा अन्य देशज शब्दों की चौपाइयों में तैयार किए गए। इतना ही नहीं कुछ प्रसंग की चौपाइयां ठेठ गढ़वाली में भी प्रस्तुअत की गईं।
सबसे पहले पौड़ी की रामलीला में महिला पात्रों का अभिनय
पारसी थियेटर शैली और राग-रागनियों पर आधारित यह राम लीला कई मायनों में खास है। इसमें हिंदुओं के साथ मुस्लिम और ईसाई समुदाय के लोग भी हिस्सा लेते हैं। वहीं इसमें सभी महिला पात्रों को महिलाओं द्वारा ही अभिनीत किया जाता है। बता दें कि पूरे उत्तराखंड में पौड़ी की रामलीला में ही सर्वप्रथम महिला पात्रों को रामलीला मंचन में शामिल किया। 2002 से शुरू हुआ यह सिलसिला वर्तमान में भी जारी है।
यूनेस्को की धरोहर है पौड़ी की रामलीला
पौड़ी की इस रामलीला ने उत्तराखंड का नाम अंतरराष्ट्रीय पटल पर रोशन किया है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली ने देशभर में रामलीलाओं पर शोध किया। जिसमें फरवरी 2008 में केंद्र ने पौड़ी की रामलीला ऐतिहासिक धरोहर घोषित है। यूनेस्को ने उसे यह मान्यता प्रदान की है।

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