13 वर्षों के बाद खैनोली गांव में हुई भव्य और दिव्य पाण्डव लीला का आयोजन, दूर दूर से आकर लोगों ने लिया पांडव देवताओं का आशीर्वाद

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राजू रावत, मीडिया प्रभारी,खैनोली पांडव लीला

उत्तराखंड की ‘पांडव लीला’, जो आज भी जीवित करती है पांडवों और कौरवों के बीच हुए धर्म युद्ध को


चमोली, 18 सितंबर: देश की उत्तरी सीमा पर बसा पर्वतीय प्रदेश उत्तराखंड पूरे संसार में देव भूमि उत्तराखंड के नाम से प्रसिद्ध है। उत्तराखंड की संस्कृति उत्तराखंड की धरती और यहां के ऊंचे नीचे हिमालय पर्वतीय भू-भागो को जीवित रखने के लिए बनाई गई है। भक्ति भावना पर आधारित यहां की संस्कृति अपने आप में विशेष स्थान रखती है। धर्म-अधर्म में अंतर पहचानने वाले यहां के सभी मनु पुत्र अपनी संस्कृति को जीवित रखने की कसम खाए हुए है।

यहां की संस्कृति में मेलजोल का भाव, धर्म, भक्ति भावना और ईश्वर आस्था का रूप देखने को मिलता है। धर्म-अधर्म के बीच हुआ संघर्ष महाभारत भी यहाँ की संस्कृति का एक विशेष और महत्वपूर्ण अंग है। जिसे यहां पे पाण्डव नृत्य या पाण्डव लीला के नाम से भी जाना जाता है। पाण्डव लीला उत्तराखंड की संस्कृति का वह अंग है जो आज भी हमे युगों पुराने इतिहास की याद दिलाता है। यहाँ की संस्कृति में इस इतिहास को जीवित रखने का अलग ही अपना एक अंदाज है। और यही अनोखा अंदाज सदियों से इस संस्कृति में देखने को मिलता आ रहा है।

चलिए जानते है पाण्डव लीला के बारे में:

पांडव नृत्य देवभूमि उत्तराखण्ड का पारम्परिक लोकनृत्य है। जनश्रुतियों के अनुसार पांडव अपने अवतरण काल में यहां अज्ञातवास, शिव की खोज में और अन्त में स्वगार्रोहण के समय आये थे।

यह भी मान्यता है कि महाभारत के युद्ध के बाद पांडवों ने अपने विध्वंसकारी अस्त्र और शस्त्रों को उत्तराखंड के लोगों को ही सौंप दिया था और उसके बाद वे स्वागार्रोहिणी के लिए निकल पड़े थे।

और अभी भी यहां के अनेक गांवों में उनके अस्त्र शस्त्रों की पूजा होती है और पाण्डव लीला का आयोजन होता है। स्व. सर्वेश्वर दत्त काण्डपाल के अतिरिक्त आचार्य कृष्णानंद नौटियाल द्वारा गढ़वाली भाषा में रचित महाभारत के चक्रव्यूह, कमल व्यूह आदि के आयोजनों का प्रदर्शन पूरे देश में होता है।

रुद्रप्रयाग-चमोली जिलों के केदारनाथ- बद्रीनाथ धामों के निकटवर्ती गांवों में इसका रोमांचक आयोजन होता है।

बताते चलें कि गढ़वाल में पांडवों का इतिहास स्कंद पुराण के केदारखंड में भी पाया जाता है। इस पौराणिक एवं धार्मिक संस्कृति को महफूज रखने के लिए ग्रामीण आज भी पांडव लीला का आयोजन भव्य रूप से करते हैं।

पाण्डव लीला यहां की संस्कृति का एक अग्रणीय भाग है। जो यहां की रीती रिवाज धर्म निरपेक्षता और यहां की पौराणिक संस्कृति को जीवित रखे रहने का जीता जगता सबूत है।

पांडवों और कौरवों के बीच हुआ यह धर्म युद्ध आज भी हमारी भावनाओं को द्वापरयुग में खीच ले आती है।

उत्तराखंड में पाण्डव लीला को मनाने का यहां के वासियों का अपना एक अलग ही अंदाज है। पाण्डव लीला पांडवों और भगवान श्री कृष्ण की लीला के रूप में सम्पूर्ण उत्तराखंड में प्रसिद्ध है।

आज हम आपको रूबरू कराते हैं उत्तराखंड के चमोली जनपद के विकासखण्ड नारायण बगड़ के सुन्दर से गांव खैनोली गांव की पाण्डव लीला से।

इसके प्रथम दिवस में पाण्डव भगवान श्री कृष्ण को साथ में ले जाकर अपने अपने अस्त्र-शस्त्र को धारण करते हैं। साथ ही यहां के देवी देवता भूमि भुमियालो और पंच प्रधानों से युद्घ की तैयारियों की आज्ञा लेते हैं। मुख्य व्यास जी द्वारा पूरे महाभरत कथा का विमोचन होता है। जो अंतिम यानी दसवें दिवस में पूरा होता है।

द्वितीय दिवस में भगवान श्री कृष्ण जी का पंया पाती (एक देव वृक्ष) का द्रस्य दिखया जाता है।

तीसरे दिवस में पांडवों का वनवासी रूप धर्मशिला और माहाबली भीम द्वारा मधुमख्खी भेदन का सचित्र रूप दिखाया जाता है।

चतुर्थ दिवस में पांडवो द्वारा महा बली किचग का वध होता है।

पंचम दिवस में पांडवों को महा बलशाली भीम की मृत्य होने की खबर मिलती है। और पाण्डव भीम के श्राद में समस्त ब्राह्मणों और साधु संतों को बुलाते हैं। जिसमें स्वयं भीम भी साधु संतों का रूप धारण कर पांडवो के इस कार्य में पहुंच जाते हैं। माता कुंती स्वयं साधुसंतो को अपने हाथो से भोजन कराती है। जिसमे भीम की भोजन करने की शैली से माता कुंती भीम को पहचान लेती हैं। और भीम का असली रूप सामने आ जाता है।

छठे दिवस में अर्जुन द्वारा गेंडा वध होता है। यह गेंडा स्वयं अर्जुन के पुत्र नागार्जुन का होता है। जब नागार्जुन को ये पता चलता है। तो वह अनजाने में अपने ही पिता को अपने बाणों से मुक्र्षित कर देता है। और अर्जुन मुक्र्षित होकर धरती माँ की आह भर लेता है। भगवान की कृपा और देवी देवताओं के आशीर्वाद से अर्जुन के प्राण वापस लौट आते हैं। और अर्जुन जीवित हो उठता है।

सातवें दिवस में पांडवों द्वारा गंगा में पिता पाण्डु के श्राद्ध होते हैं। उसी दिन से आज तक पूरे हिन्दू धर्म में इस पक्ष को श्राद्ध पक्ष के रूप में भी जाना जाता है। और पितरो को पिंड दान अर्पण करते है। साथ ही पत्रों से धर्म युद्घ में धर्म की विजय का संकल्प भी लेते हैं।

अष्टम दिवस में कौरव पांडवों के बीच कुरुक्षेत्र के विशाल निर्दयी भूमि में महाभरत का ऐतिहासिक युद्घ प्रारम्भ होता है। और पांडवो द्वारा कौरव सेना के अठारा महान महान योद्धा अठारा जोधो (बार) में रणभूमि में मार दिये जाते है। और पांडवो को इस धर्म युद्घ में धर्म के साथ विजय प्राप्त होती है। इसी दिन से धर्म के साथ पांडवो का नाम अवश्य जोड़ा जाता है।

नवम दिवस में पांडवो द्वारा अधर्मी कौरवों को मारने की खुशी होती है। वही पांडवो पर मानव एवम गुरु हत्या का पाप लग जाता है। जिस हत्या को मिटाने एवम पाप धोने के लिए सभी पाण्डव श्री भगवान केदार धाम जाते हैं। जहां वो अपने ऊपर लगे मानव एवम गुरु हत्या का पाप मिटाते हैं। और साथ में अपने अस्त्र- शस्त्रों को भी सदैव के लिए त्याग देते हैं। और भगवान केदार नाथ के पूजा करते है।

दशम दिवस में भगवान सत्यवादी पाण्डव धर्म विजय के उपरांत भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा से इस पृथ्वी को त्यागकर श्री बद्रीनाथ धाम से स्वगार्रोहणी होते हुये स्वर्ग के लिए प्रस्थान होते हैं। जहो सत्यवादी पांडवो को अलग-अलग स्थानों में मोक्ष की प्राप्ती होती है। इस दिन को पाण्डव लीला की सांती (समापन) के नाम से भी जाना जाता है। गांवों में इस दिन विशाल धर्म यज्ञ किया जाता है। जिसमे ब्राह्मणों को भोजन एव दान दिया जाता है। साथ में सभी को भगवान पांडवो का प्रसाद भी वितरित किया जाता है।

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