तैड़ी की तिलोगा और भूरपूरगढ के अमरदेव सजवाण की ऐतिहासिक अमर प्रेमगाथा

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कहानी लेखक _राकेश पुंडीर, मुंबई

धौळी का आँसू

(तैड़ी की तिलोगा और भूरपूरगढ के अमरदेव सजवाण की ऐतिहासिक अमर प्रेमगाथा )

उत्तराखंड कई अमरप्रेम गाथाओं का गढ रहा है जैसे कि राजूला मालूशाही, हरू हीत, सरू अर क्वीलीगढौ सज्वाण, जीतू बगड्वाल अर भरुणा, नरू विजौला आदि…!

यह कहानी 1705 ई. के आसपास की है !
यूं तो इससे काफी समय पूर्व ही गढवाल के राजा अजयपाल ने 1490 से लेकर 1519 ई. तक 52 गढ़ों में विभाजित गढवाल राज्य को एकत्र कर सभी गढों पर एकछत्र शासन स्थापित कर दिया था और वृहद गढ़वाल राज्य की स्थापना कर दी थी…. परंतु उन्होंने 52 गढों के ठाकुरों से ठकुराई अधिपत्य नहीं छीना बल्कि उन्हें गढ की जगीरदारी की जबाबदारी सौंपी और शासन की बागडोर स्वयं के हाथ में श्रीनगर दरबार से संचालित रखी !

इन्ही में से सजवाण ठाकुरों का एक गढ था भरपूर गढ जो आज देवप्रयाग ऋषिकेष रोड पर स्थित तीनधारा के समीप ही स्थित है ! दूसरी तरफ धौळी गंगापार था तडियाल ठाकुरों का तैड़ीगढ ! जो आज डांडा नाराजा के तल में स्थित बणेलस्यूं पट्टी में स्थित है …!

प्राचीन में दोंनों गढों में घनी मित्रता थी दोनों गांव आज भी गंगावार व गंगापार होते हुए भी बहुत नजदीक दृष्टीगोचर होते हैं परंतु हैं बहुत दूर….उस दौर में पूर्णमासी की रात्रि में एक दूसरे के गांव से मकान की पठालियां तक चमकती दिखाई देतीं थीं , लेकिन अगर एक दूसरे के गढ जाना पडे तो घंटो पैदलमार्च हुआ करता था …बीचमें बहती गंगा नदी, जिसको पार करना असंभव सा होता था ! तब कहीं दूर बहुत दूर तार हुआ करते थे…तार मे लटक कर आर पार जाया जाता था …!

उस कालखंड में डांडा नागराजा की पूजा व कौथिग (थौळ) अमसारी गांव में हुआ करता था जोकि धौळी गंगा और नयार नदी के संगम के पास आज भी स्थित है !

यह अलग कहानी है कि कालंतर मे डांडा नागराजा तैडी गांव की पहाड की चोटी पर प्रकट हुए और आज डांडा नागराजा का मेला डांडा की अमुक चोटी में होता है ! इसीलिये यह डांडा नागराजा नामित हुआ…!

एक बार की बात है घोडों मे सवार दोनों गढों के गढपति आमसारी के कौथिग मे सपत्नीक पहुंचे हुए थे …..महाबगढ के बुटोला ठाकुर और असवालगढ के असवाल ठाकुर भी पधारे थे …. वहां ठाकुर बलदेब सजवाण और ठाकुर विक्रम सिंह तडियाल की भेंट होती है मंदिर मे दर्शन के बाद दोनों ठाकुरों की पत्नियां भी बडे स्नेह और प्रेम से गले भेटतीं हैं… उस दौर में एक प्रचलन बहुत प्रचलित था कि यदि दो राजा या दो ठाकुर या फिर दो थोकदार किसी ऐंसे शुभअवसर पर मिलते थे और दोनों की पत्नियां ग्रभस्थ अवस्था में हों तो वे दो मित्र अकसर एक दूसरे से वचन करते थे कि पुत्र हो या पुत्री वे समधी बनेंगे .! दोनों ठाकुरों ने भी वचन लिया और थौळ समाप्त होने पर अपने अपने गढ़ लौट गये !

समय बीता …. भरपूर गढ के बलदेब सजवाण के यहां पुत्र जन्म हुआ जिसका नाम अमरदेव रखा गया और तैडी के ठाकुर विक्रम सिंह के यहां पुत्री का जन्म हुआ जिसका नाम उसकी उसकी दादी ने तिलोगमा (तिलोगा) रखा …!

समय बीतता रहा….तिलोगा किशोरवस्था पार कर रही थी वह छरहरे गात की ह्यूँ जैसी सफेद गोरी, तडतडी नाक, घुगती जैंसी गौळी, गोल मुखड़ी कळहिंसर सी घुंगर्याळि आँखे कुलमिलाकर बहुत ही सुंदर बांद थी !
उधर अमरदेव भी सुंदर कदकाठी लंबा चौडा बांका जवान सुंदर गठीला भड़ जैसा सुदर्शन हो चुका था ..

एक बार की बात है असवाल गढ का मातबर सिंह असवाल ठाकुर श्रीनगर दरबार की अवज्ञा करने लगा था उसकी उदंडता की शिकायत बार बार आ रही थी…श्राीनगर रज्जा ने अमरदेव के पिता बलदेव सिंह ठाकुर को पत्र भेजा कि सेना की छोटी टुकडी लेकर असवालगढ जाओ और मातबर सिंह असवाल को समझाओ….! अमरदेब ने पिता से कहा पिताजी यह कार्य अब मुझे सौंप दें…! मै मातबर असवाल को समझाकर आऊंगा ! पिता ने थोडा ना नुकर कर अमरदेव को 20 तगडे लठैतो के साथ भेज दिया !
नयार के छाला किमसैंण में दोनों समूहों की भिंडंत हुई अमरदेव ने मातबर असवाल को बहुत समझाने की कोशिश की … कि हट मत करो …राजा का मान सम्मान करना और आदेश मानना सभी ठाकुरों का कर्तव्य है अन्यथा राज्य में राजकता फैल जाऐगी ! लेकिन मातबर सिंह बडा हठी था नहीं माना… फिर हथापाई या कह सकते हैं युद्ध होना लाजिमी था …अमरदेव रणकौशल कला जानता था…अमरदेव ने मातबर सिंह और उसके आदमियों को अकेले ही धूल चटा दिया और घायल कर दिया…और सबक सिखा कर ही दम लिया… ललकार कर कहा कि दुबारा विद्रोह किया तो फिर जान से जाओगो…अभी मै तुमकोक छोड रहा हूं पर आगे का निर्णय तुम पर छोडता हूं…कहते है मातबर सिंह ने फिर विद्रोह तो नहीं किया लेकिन राजनीति चली और अपने फुफेरे भाई तैडी की तिलोगा के पिता ठाकुर विक्रम सिंह को अमरदेव सजवाण के विरूद्ध भडका दिया ….!

इस मध्य तिलोगा की दादी एक दिन उर्ख्यळा में अनाज कूटते समय बात ही बात में तिलोगा को फटकारती है कि…. सब चौंळ खतीन त्वेन लाडी…इतगा बडी ह्वेगी…! अबर तकै सुप्पान फटगण नि सीकी त्वेन….बांजा डलण त्वेन वे सजवाणै कुडी़ ….!!

तिलोगा समझ नहीं पाती और दादी के पीछे पड जाती है कि कौन सजवाण…दादी थकहार कर उसके जन्म से पहले कि कहानी सुना देती है और दिया हुआ बचन बता देती है !…. !
ज्वनी की उमंग और उठती पतंग को कोई रोक नही सकता…! तिलोगा तब से हमेशा अमरदेव सजवाण के ख्यालों मे खोई रहने लगी …कैसा होगा वो कैसा दिखता होगा और मन ही मन अमरदेव को अनजाने में ही प्रेम कर बैठी अब उसका हृदय उसके बस में नहीं था ! हर घडी मंगेतर अमरदेव के सपने सजाेने लगी…!

उधर भरपूर गढ में जब अमरदेब उस उदंडी मातबर असवाल को सबक सिखाकर पहुुंचता है तो सब उसको सबाशी देते हैं उसके मां पिता उसको तिलक लगाकर सम्मान करते हैं … मां वहीं पर अमरदेव के पिता ठाकुर बलदेव सिंह को तैडी के ठाकुर से हुई बात को कहती है….!
पिता कहते है कि ठीक है अगले महिने के शुभदिन पर जा कर बात करूंगा …!

अमरदेब यह बात मां को अकेले मे जाकर पूछता है… मां सारा किस्सा बता देती है …..इधर तबसे अमरदेव के दिल में भी तिलोमा कि सुंदर छबि बस जाती है .. हर रात उसे तिलोगमा सपने में दिखाई देने लगती है वह अजीब सी छटपटाहट में अपनी मंगेतर से मिलने की तरकीब सोचने लगता है !

एक दिन उसके मित्र बताते हैं कि कल व्यासघाट में नागराजा मेला है …वह माँ से कहता है कि माँ मै कल व्यासी मेले में जाऊंगा…..मां उसे पुचकारती हुई कहती है मुझे पता है अमरू तू वहां किससे मिलने जा रहा है… और यह कहते उसकी माँ सहज ही गले की बेशकीमती सोने और जवाहरात से जडी जंजीर निकाल कर देती है और कहती है कि जब तू तिलोगा से मिलेगा तो मेरी यह भेंट उसे देना …!
अमरदेब कहता है माँ मै उसे कैंसे पहचानूंगा….माँ कहती है पूरे कौथिग में जो सबसे सुंदर बांद होगी वही तिलोगा होगी ….. !

उधर तिलोगा को भी हर रात सपने में अमरदेव दिखाई देता….उस रात्रि अमरदेव ने सपने में कहा था तिलोगा कौथिग आ… वहीं भेंट करेंगे ..!

दोनों कौथिग की भीड में एक दूसरे को अनायास ही दीवानों की तरह ढूंडते रहते हैं एक जगह एक सबसे सुंदर बांद अपनी सहेलियों के साथ चूडी वाले के दुकान पर चूडी पहन रही होती है….अमरदेव की नजर उस सबसे सुंदर बांद पर टिक सी जाती है वह अनायास ही उसकी ओर बढ जाता है और तिलोगा के सामने तनिक दूरी पर मुस्कान लिए खाडा हो जाता है अचानक तिलोगा की नजर अमरदेव पर पडती है और वह अपने चूडी वाला हाथ पर ध्यान न देकर अनायास ही एकटक अमरदेव को देखने लगती है ! मन ही मन दोनों को पराज सी लगती है और वे किसी अनजानी शक्ति के बशीभूत एक दूसरे के निकट आ जाते हैं …. !

अमरदेब तिलोगा को एकटक देखते हुए अपने दौंखा (उस जमाने का जैकट) से वह बेशकीमती जंजीर निकलते हुए कहता है तिलोगा ! ब्वेन या जंजीर त्वेकु थै दियींच…ले स्वीकार कैर ! तिलोमा जंजीर स्वीकारती है और प्रेम और स्नेह की इस भेट को अपनी दोनों आँखों से लगाकर सम्मान देती है और पहन लेती है … सोचती है माता का इतना प्यार और स्नेह ?? अनायास ही अमरदेव को सामने साक्षात देख तिलोमा की आँखे भर आती हैं …अमरदेव तिलोगा के आँसुओं को धरती पर नहीं गिरने देता और तर्जनी मे थाम लेता है ! और भवुक हो कहता है मैं इन आंसुओं की पवित्र बूंदों को यहां नही गिरने दूंगा इनको पवित्र गंगा की धारा में बहाऊंगा…तब यह पवित्र पानी की बूंदे धौळी के आँसू बन जाऐंगे ..!!

जब अमरदेव जाने लगता है तो तिलोमा कहती है कब ले जाओगे मुझे ….अमरदेव कहता है शीघ्र अतिशीघ्र तिलोगा …!

इधर अमरदेव की माँ पति बलदेव सजवाण को बात करने तैडी गांव भेजती है….बलदेब सजवाण तैडी पहुंचते हैं लेकिन विक्रम सिंह तडियाल तिलोगा को देने से साफ मना कर देता है …जब बलदेव सजवाण वचन याद दिलाते हैं…तब विक्रम सिंह तडियाल कहता है कोई भी बचन अपने भाई की इज्जत और सम्मान से बढकर नही होता…असवाल गढ का मातबर असवाल मेरा बुआ का पुत्र है जिसको पीट पीट कर तुमारे बेटे ने अपमान किया है…!

इधर कौथीग में गांव के जिन लोगों ने तिलोगमा और अमरदेव को देखा था उन्होने विक्रम सिंह को बता दिया …. इसलिए पिता विक्रम सिह तडियाल महाबगढ के लाखन सिह बुटोला ठाकुर से तिलोगा की झटपट मंगनी करा देते हैं !


तिलोगा रोती है गिडगिडाती है पांव पकडती है लेकिन पिता टस से मस नही होते !

इधर अमरदेव चार सूखी लौकी के तोमडों को कंधे पर लटकाकर धौळी पार करता है चूडी बेचने वाले का भेष बनाकर तैडी पहूंच जाता है….वह तिलोमा के तिबार में चूडीयों की गठरी लेकर जाता है मौका देख वह तिलोमा को अपनी पहचान बताता है …तिलोगा सुबक सुबक रोती है …वह तिलोमा को स्वांतना देता है कि मैं फलां दिन तैडी गांव के नीचे भिमलखेत मिलने ब्यखुनी बेर (संध्याकाल) मिलने आऊंगा ….तुम वहां आना मिलने ! तिलोगमा हां मे सिर हिलाती है !

उसके बाद उस रात से हर रात अमरदेव अपने भरपूर गढ के कोठा की नींमदार में मशाल जलाता था और यहां तैडी गांव के अपने कोठे के छज्जा किनारे तिलोगा मशाल जलाती थी ! उन्हे ऐंसा प्रतीत होता था कि वे दूररर से एक दूसरे को निहार रहें हैं उनके इस प्यार की लौ से उन्हे तनिक सकून सा मिल जाया करता था !

एक दिन फिर से अमरदेव धौली पार करके सूखी लौकियों द्वारा भिमलखेत पहूंच जाता है दोनों प्रेमी बैरी दुनयां से बेखबर मिलते हैं !
अमरदेव कहता है तुम्हारे पिताजी ने बचन तोड दिया लेकिन मेरे माता पिता अभी भी आस में बैठे हैं… …तिलोमा कहती है मेरे पिताने बचन तोडा है लेकिन मैं बचन निभाऊंगी …अगर तुम मुझे भरपूर नही लेकर जा सके तो महाब गढ मेरी लाश जायेगी.. ….अमरदेब तिलोमा को बचन देता है कि मै अमुक दिन आऊंगा और तुझको गंगापार लेकर ही जाऊंगा !
बैरी दुनियां का एक मुसाफिर गबरू नामक हल्या उनको देख लेता है….वह कुछ इनाम किताब के लालच मे ठाकुर को बता देता है ….

ठाकुर विक्रम युक्ति से काम लेता है वह चुपचाप योजना बनाता है वह अपने आदमियों को हथियारों से लैस रहने का निर्देश दे देता है ..वह तिलोगमा पर गहरी नजर रखने कहता है …इधर महाब गढ के लाखन बुटोला को भी कुछ जरूरी कारण से आने को संदेश भेज देता है …..!

उधर वचन के मुताबिक अमरदेव तिलोमा को लाने धौली पार कर भिमलखेत की ओर चल पडता है साथ मे अनहोनी परस्थिती न हो इसलिए एक खुंकरी भी कमर पर बांध लेता है !

अमुक दिन शाम ढलते ही तिलोगमा अमुक समय कोठे से निकलती है….ठाकुर विक्रम अपने आदमियों को इशारा कर लेता है वे सभी दबे पांव कुछ दूरी बनाकर चलते हैं ….!!

तिलोगा और अमरदेव का मिलन होता है जैसे ही वे भरपूर गढ की ओर चलने तयार होते हैं सभी हथियारों से लैस घेर लेते हैं….सभी 15 20 लोग लाठियों खुंकरियों कुल्हाडी से अमरदेव पर हमला बोल देते हैं …अमरदेव रण कौशल कला जानता था वह एक हाथ में खुंकरी और एक हाथ मे लाठी संभाल लेता है घमासान होने लगता है वह सभी पर एकसाथ वार करता है….कुछ लोग डर से पीछे हट जाते हैं इतने मे ठाकुर विक्रम मौका देख भिड जाता है और तलवार से अमरदेव पर वार करता है लेकिन अमरदेव वार बचा लेता है और विजली की गति से तलवार वाला हाथ पकड घुमा लेता है और पिछे से विक्रम ठाकुर की गरदन मे खुंखरी टिका लेता है , अमरदेव तलवार छीनकर सबको भाग जाने को कहता है… कहता है मैं खून खराबा नहीं चाहता ……तब तक थोडा अंधेरा सा हो चुका था लाखन बुटोला झाडियों में छुपा होता है अंधेरे का फायदा उठाकर वह लुकमार करता है और अमरदेव सिंह सजवाण के सिर पर पीछे कुल्हाडी से वार करता है सजवाण चक्कर खा कर नीचे जमीन पर गिरता है यह देख सभी लठैत सजवाण पर टूट पडते हैं …और घायल सजवाण को लाठी तलवार कुल्हाडी से अभिमन्यु की तरह घेर कर मार देते हैं ..!!

तिलोगा अपने मंगेतर को बचाने उसके उपर गिर जाती है …वह जोर जोर से दहाडती है रोती है चिल्लाती है तडफती है … चिल्लाते चिल्लाते कुछ देर बाद वह बेहोश हो जाती है…. बेहोश तिलोगमा को उठाकर वे लोग गांव की तरफ ले जाते हैं…… लेकिन उस स्थान पर जहां कि गांव का पानी भरने की एकमात्र बावडी है वहां पर तिलोगमा को होश आ जाता है…वह तुरंत एक लठैत की खुकरी छीनती है और दौड कर बावडी के पास खडी हो हुंकार भरती है ! जोर से चीख कर धवाडी मारती है …कि…..सच्चू नागराजा होलु त् तुम सब्या पाप्यूं थै कोड़ ह्वेनि….. सच्चा नागराज होगा तो तुम सब पापियों को कोढ होगा तुम कभी चैन से मरोगे भी नही…..ये मेरा श्राप है ! और यह कहते हुऐ वह खुंकरी को खुद के गले पर फेर देती है …..खून का फब्बारा उसके गले से फूट पड़ता है …..वह निढाल हो बावडी के अंदर गिर जाती है….!!

कहते हैं कि कई वर्षों तक इस गांव में तिलोगमा का श्राप फलीभूत होता रहा …और इस कारण कोई भी दूसरे गांव वाला वहां अपनी लडकी तक विवाहने नहीं देता था… लगभग सौ सालों तक उस शापित बावडी का पानी कोई नही पिया !

आज भी बणेलस्यूं पट्टी में इस गांव की तिलोगमा अमरदेव के जागर और पावडे लगते हैं !

Written By राकेश पुंडीर , मुंबई (copyright)
(कहानी सर्व अधिकार संरक्षित )

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