
वरिष्ठ पत्रकार संजय चौहान की फेसबुक से।
पहाड़ के लोक में काफल की मिठास का हर कोई मुरीद है। इन दिनों पहाड़ के अधिकांश जंगल काफल से लकदक हो रखें हैं। लोग काफल के मिठास का आनंद ले रहे हैं। भले ही कोरोना वाइरस के वैश्विक संकट के इस दौर में चारों ओर निराशा का भाव फैला हुआ हो परंतु लाॅकडाउन प्रकृति के लिए वरदान साबित हुई है। लाॅकडाउन की अवधि में न केवल पर्यावरण स्वच्छ हुआ है अपितु जंगल व पेड पौधों के लिए संजीवनी साबित हुई है। इस साल पहाडों में काफल से जंगल अटे पड़े हुये हैं। लाॅकडाउन के दौरान रामनगर से लेकर देहरादून तक काफल पाको, काफल पाको.. गाती हुई पक्षी की आवाज साफ सुनाई दे रही थी।
— ये है काफल!
काफल मुख्यतः पहाडी प्रदेशों में पाया जाता है। इसे myrica nagi और myrica esculenta, boxberry के नाम से भी जाना जाता है। हिमाचल और उत्तराखंड के गढवाल-कुमाऊं के पहाडी जनपदों में ये बहुतायत मात्रा में पाया जाता है। यह 1000 से 2000 की ऊचाई में मिलता है। पूरे विश्व में काफल की 50 से अधिक प्रजातियां पाई जाती है।
— आर्थिकी का साधन!
काफल का स्वाद और लाल काला चटक रंग हर किसी को आकर्षित करता है, खासतौर पर पर्यटकों को बेहद भाता है ये काफल। ये स्थानीय लोगों के लिए आर्थिकी का भी साधन है। उत्तराखंड के गढवाल-कुमाऊं में अप्रैल मध्य से लेकर मई और जून मध्य तक ये मिलता है। स्थानीय लोग जंगलों से काफल एकत्रित करके बाजार में विक्रय करने लाते हैं। देहरादून, हल्द्वानी, नैनीताल, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, रानीखेत, पौडी, गोपेश्वर, पीपलकोटी, गैरसैण, द्वाराहाट, गुप्तकाशी, चंबा, टिहरी, मसूरी सहित अनेक शहरों में काफल 200 से लेकर 400 रूपये किलो तक मिलता है। काफल के सीजन में ग्रामीण काफल से अच्छी खासी आमदनी कमा लेते हैं। यदि हिमाचल राज्य की तर्ज पर उत्तराखंड में भी सरकार काफल को रोजगार से जोडने की कयावद शुरू करती है तो इससे हजारों लोगों को काफल के सीजन में तीन महीने का रोजगार अपने ही घर में मिल सकेगा।
— रामबाण औषधि है काफल!
काफल में औषधीय गुणों की भरमार है। काफल मुख्य रूप से हृदय रोग, बुखार, जुखाम, खून की कमी, अस्थमा, ब्रोकाइटिस, अतिसार, मूत्र विकार, पेट विकार, यकृत सम्बन्धी विभिन्न बीमारियों में लाभदायक होता है। काफल दर्दनाशक, सूजनरोधी, एंटीऑक्सीडेंट के रूप में भी इसका प्रयोग किया जाता है। काफल में प्रचुर मात्रा में विटामिन, मिनरल और एंटीऑक्सीडेंट तत्व पाये जाते हैं।
काफल पाकौ मिन नि चाखौ– काफल को लेकर पहाड़ के लोक में माँ -बेटी की बेहद मार्मिक कहानी..
काफल को लेकर उत्तराखण्ड का प्रसिद्ध लोकगीत काफल-पाकौ चैत तथा काफल पाकौ मिन नि चाखौ हर किसी को भाता है और हर किसी को इसे गुनगुनाते हुये सुना जा सकता है। काफल को लेकर उत्तराखंड के लोक में एक मार्मिक कहानी है। जिसके अनुसार उत्तराखंड के एक गांव में एक गरीब महिला रहती थी, जिसकी एक छोटी सी बेटी थी, दोनों एक दूसरे का सहारा थे। आमदनी के लिए उस महिला के पास थोड़ी-सी जमीन के अलावा कुछ नहीं था, जिससे बमुश्किल उनका गुजारा चलता था। गर्मियों में जैसे ही काफल पक जाते, महिला बेहद खुश हो जाती थी। उसे घर चलाने के लिए एक आय का जरिया मिल जाता था। इसलिए वह जंगल से काफल तोड़कर उन्हें बाजार में बेचती, जिससे परिवार की मुश्किलें कुछ कम होतीं। एक बार महिला जंगल से एक टोकरी भरकर काफल तोड़ कर लाई। उस वक्त सुबह का समय था और उसे जानवरों के लिए चारा लेने जाना था। इसलिए उसने इसके बाद शाम को काफल बाजार में बेचने का मन बनाया और अपनी मासूम बेटी को बुलाकर कहा, ‘मैं जंगल से चारा काट कर आ रही हूं। तब तक तू इन काफलों की पहरेदारी करना। मैं जंगल से आकर तुझे भी काफल खाने को दूंगी, पर तब तक इन्हें मत खाना।’ मां की बात मानकर मासूम बच्ची उन काफलों की पहरेदारी करती रही। इस दौरान कई बार उन रसीले काफलों को देख कर उसके मन में लालच आया, पर मां की बात मानकर वह खुद पर काबू कर बैठे रही। इसके बाद दोपहर में जब उसकी मां घर आई तो उसने देखा कि काफल की टोकरी का एक तिहाई भाग कम था। मां ने देखा कि पास में ही उसकी बेटी सो रही है। सुबह से ही काम पर लगी मां को ये देखकर बेहद गुस्सा आ गया। उसे लगा कि मना करने के बावजूद उसकी बेटी ने काफल खा लिए हैं। इससे गुस्से में उसने घास का गट्ठर एक ओर फेंका और सोती हुई बेटी की पीठ पर मुट्ठी से जोरदार प्रहार किया। नींद में होने के कारण छोटी बच्ची अचेत अवस्था में थी और मां का प्रहार उस पर इतना तेज लगा कि वह बेसुध हो गई। बेटी की हालत बिगड़ते देख मां ने उसे खूब हिलाया, लेकिन तब तक उसकी मौत हो चुकी थी। मां अपनी औलाद की इस तरह मौत पर वहीं बैठकर रोती रही। उधर, शाम होते-होते काफल की टोकरी फिर से पूरी भर गई। जब महिला की नजर टोकरी पर पड़ी तो उसे समझ में आया कि दिन की चटक धूप और गर्मी के कारण काफल मुरझा जाते हैं और शाम को ठंडी हवा लगते ही वह फिर ताजे हो गए। अब मां को अपनी गलती पर बेहद पछतावा हुआ और वह भी उसी पल सदमे से गुजर गई। कहा जाता है कि उस दिन के बाद से एक चिड़िया चैत के महीने में ‘काफल पाको मैं नि चाख्यो’ कहती है, जिसका अर्थ है कि काफल पक गए, मैंने नहीं चखे.. फिर एक दूसरी चिड़िया गाते हुए उड़ती है ‘पूरे हैं बेटी, पूरे हैं’..
वास्तव में देखा जाए तो काफल न केवल बहुमूल्य औषधि गुणों से भरपूर है अपितु यह तीन महीने लोगों के लिए रोजगार का साधन भी है। काफल को रोजगार से जोडने के प्रयास किये जाने चाहिए ताकि इसकी खूबसूरती, मिठास के साथ साथ ये लोगों की आर्थिकी को भी मजबूत कर सके। काफल के पेड़ के संरक्षण और संवर्धन हेतु भी प्रयास किये जाने चाहिए।
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