फिल्म की कहानी एक बूढ़े पति -पत्नी के बारे में है, जो बहुत कमजोर किन्तु प्यारे हैं। आज की भागती -दौड़ती जिंदगी में अपने बच्चों के प्यार से वंचित होने के बावजूद, उनमें अभी भी अपने जीवन की उदासी और दुखों से लड़ने का साहस है। वो चाहते हैं की देश छोड़ विदेश में रहने वाला उनका बड़ा बेटा अब और पैसों के पीछे ना भागे, वो उसे कहते हैं की पैसा और पैसा कमाने की लत छोड़ दे अपने परिवार को वक़्त दे वो ही सबसे जरुरी है। क्यूंकि इसी अच्छी जिंदगी की चाह में वो भी एक दिन अपने पहाड़, अपने गांव, अपने लोगों को छोड़ दिल्ली आए थे और आज उन्हें अकेलेपन के अलावा कुछ नहीं मिला। वो अपने छोटे फौजी बेटे से उम्मीद करते हैं की देश की सेवा के साथ -साथ माँ -बाप की सेवा करना भी उसका फ़र्ज़ है।

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स्तिथि और बुरी हो जाती हैं जब लड़ाई में उनका छोटा बेटा मारा जाता है। बड़ा बेटा मिलने तो आता है मगर रहने नहीं। दो बेटों के माँ -बाप का सौभाग्य मिला था बूढ़े -बुढ़िया को मगर सुख नहीं। बेटों के हाथों से अंत में आग मिले इसलिए बेटे के चाह रखने वाले हम लोग इस सुख से वंचित होने के डर से …….. ?

बाकी कहानी फिल्म देखने के बाद आप समझ पाएंगे। आज अच्छी शिक्षा की उम्मीद , सुख सुविधाओं का लालच , पैसा और पैसा हमें अपनी जड़ों से, अपनों से दूर करा रहा है उस दुरी को हम समय रहते महसूस नहीं कर पाये तो वो जख्म नासूर बन जाएंगे और नासूर कभी नहीं भरते …. उनमें पस पड़ जाती है जो दर्द और बदबू के सिवाय कुछ नहीं देती। यह सन्देश देने आप सभी के बीच दामोदर हरी फाउंडेशन के सहयोग से असवाल एसोसिएट एवं प्रज्ञा आर्ट्स प्रोडक्शन की फिल्म व्यखुनि कु छैल (दानी आंख्युं कु पाणी ) जल्दी ही आपके सामने होगी। श्रीमती लक्ष्मी रावत, वरिष्ठ रंगकर्मी एवं अभिनेत्री फिल्म में बतौर निर्देशक एवं मुख्य भूमिका में हैं उनके साथ दिखाई देंगे प्रज्ञा आर्ट्स के रंगकर्मी श्री पीताम्बर सिंह चौहान । फिल्म का छायांकन किया है उत्तराखंड के नए उभरते चेहरे श्री प्रणेश असवाल एवं देव नेगी ने। फिल्म एडिटिंग में गौरीश माथुर एवं जतिन गुप्ता , कॉस्टूम एवं लोकेशन प्रज्ञा सिंह रावत , अरण्य रंजन, मिंटू शर्मा फिल्म की दूसरी कास्ट में दिखाई देंगे विक्रांत शर्मा, रेखा पाटनी, देवेंद्र आर्य, अमन शर्मा, प्रतीक कुमार, शुभम चौधरी, जानवी सिंह, श्रेया नोरियल, रीना रतूड़ी आदि.

असवाल एसोसिएट के मैनेजिंग डायरेक्टर और सामजसेवी रतन सिंह असवाल के अनुसार हम अपनी फिल्म को सिर्फ हॉल तक सिमित ना रख कर गाँव -गांव तक पहुँचाना चाहते हैं। हम चाहते हैं की गांव में रहने वाले लोग यह जाने की जिस अच्छी जिंदगी की चाहत में हम शहरों की तरफ जाने का सपना देख रहें हैं दुःख , अकेलापन ,और लाचारी वहां भी है। और इसके लिए हम लोगों को फिल्म के पास नहीं लाएंगे बल्कि फिल्म को लोगों के पास लेकर जाएंगे।

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