*डॉ. यशवंत सिंह परमार ग्रामीणों के साथ पत्तल पर भोजन करते थे और 17 वर्ष तक मुख्यमंत्री रहने के बाद एच.आर.टी.सी. की बस से अपने गाँव चनालग (सिरमौर) लौटे।



*शीशपाल गुसाईं, शिमला से लौटकर*
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हिमाचल प्रदेश का गठन एक लंबे और जटिल संघर्ष का परिणाम था, जिसमें स्थानीय जनता, स्वतंत्रता सेनानियों और नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 19वीं और 20वीं सदी के प्रारंभ में, यह क्षेत्र छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ था, जिनमें शिमला, सिरमौर, चंबा, मंडी, सुकेत आदि शामिल थीं। ये रियासतें स्थानीय राजाओं या ठाकुरों के शासन के अधीन थीं और अंग्रेजी शासन के प्रभाव में थीं। ब्रिटिश साम्राज्य ने इन रियासतों को अपने नियंत्रण में रखा था, जिसके कारण जनता को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शोषण का सामना करना पड़ता था।

*प्रजामंडल आंदोलन और स्वतंत्रता संग्राम*
हिमाचल प्रदेश के लोग स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से शामिल थे। प्रजामंडल आंदोलन ने रियासतों में सामाजिक और राजनीतिक सुधारों की मांग को तेज किया। यह आंदोलन ब्रिटिश शासन और स्थानीय राजाओं के दमनकारी शासन के खिलाफ था। सिरमौर, मंडी, सुकेत और अन्य रियासतों में जनता ने बेगार प्रथा, उच्च करों और सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई। 1857 की क्रांति की चिंगारी हिमाचल में भी पहुंची थी, जब कसौली छावनी में विद्रोह की शुरुआत हुई। इसके बाद, 1914-15 में मंडी षड्यंत्र जैसे प्रयासों ने स्वतंत्रता की लौ को और प्रज्वलित किया।
*रियासतों का एकीकरण*
स्वतंत्रता के बाद, 1947 में भारत के सामने रियासतों के एकीकरण की चुनौती थी। हिमाचल प्रदेश का क्षेत्र 30 से अधिक छोटी-बड़ी रियासतों में बंटा हुआ था। इन रियासतों को एकजुट कर एक प्रशासनिक इकाई बनाना आसान नहीं था। पड़ोसी राज्यों, जैसे पंजाब और उत्तर प्रदेश, ने हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों को अपने में विलय करने की कोशिश की, जिससे हिमाचली अस्मिता को खतरा उत्पन्न हुआ। इस दौरान, स्थानीय नेताओं ने हिमाचल को एक स्वतंत्र प्रशासनिक इकाई के रूप में स्थापित करने के लिए संघर्ष किया।
*पूर्ण राज्य का दर्जा*
15 अप्रैल, 1948 को 30 रियासतों के विलय के बाद हिमाचल प्रदेश को केंद्र शासित प्रदेश के रूप में स्थापित किया गया। हालांकि, यह केवल एक प्रारंभिक कदम था। हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। 1950 में इसे ‘सी’ श्रेणी का राज्य बनाया गया, और 1956 में केंद्र शासित प्रदेश। 1966 में पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों, जैसे कांगड़ा, को हिमाचल में शामिल किया गया, जिससे इसका भौगोलिक स्वरूप और मजबूत हुआ। अंततः, 25 जनवरी, 1971 को, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शिमला के रिज मैदान पर हिमाचल प्रदेश को भारत का 18वां पूर्ण राज्य घोषित किया। यह एक ऐतिहासिक क्षण था, जो दशकों के संघर्ष और हिमाचली जनता की एकता का प्रतीक था।
*डॉ. यशवंत सिंह परमार का योगदान*
डॉ. यशवंत सिंह परमार, जिन्हें ‘हिमाचल निर्माता’ के रूप में जाना जाता है, हिमाचल प्रदेश के गठन और विकास के शिल्पी थे। उनका जीवन एक प्रेरणादायक गाथा है, जो समर्पण, दूरदृष्टि और जनसेवा का प्रतीक है। सिरमौर जिले के चनालग गांव में 4 अगस्त, 1906 को जन्मे परमार ने अपनी शिक्षा लखनऊ विश्वविद्यालय से पूरी की, जहां उन्होंने एम.ए., एल.एल.बी. और समाजशास्त्र में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की।
*स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका*
डॉ. परमार स्वतंत्रता सेनानी थे और प्रजामंडल आंदोलन के प्रमुख नेता थे। उन्होंने सिरमौर रियासत में बेगार प्रथा और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई। 1930 से 1941 तक उन्होंने सिरमौर में सब जज, मजिस्ट्रेट और सत्र न्यायाधीश के रूप में कार्य किया, लेकिन सामाजिक सुधारों के लिए उन्होंने नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। वे सिरमौर एसोसिएशन, हिमाचल हिल स्टेट्स काउंसिल और ऑल इंडिया पीपुल्स कॉन्फ्रेंस से जुड़े रहे।
*हिमाचल के गठन में योगदान*
1948 में हिमाचल प्रदेश के गठन के समय, डॉ. परमार ने रियासतों के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे हिमाचल प्रदेश चीफ एडवाइजरी काउंसिल के सदस्य सचिव और हिमाचल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे। 1952 में वे हिमाचल के प्रथम मुख्यमंत्री बने और 1952-1956 तथा 1963-1977 तक इस पद पर रहे। उनके नेतृत्व में हिमाचल ने पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त किया। परमार ने पड़ोसी राज्यों की चुनौतियों का सामना करते हुए हिमाचली अस्मिता को संरक्षित किया और केंद्र सरकार से हिमाचल के हितों की वकालत की।
डॉ. परमार ने हिमाचल के सर्वांगीण विकास के लिए ठोस नींव रखी। उन्होंने सड़कों को ‘पहाड़ों की भाग्य रेखा’ माना और यातायात नेटवर्क का विस्तार किया। शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, बागवानी और वानिकी के क्षेत्र में उनके द्वारा शुरू की गई योजनाएं आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने हिमाचल कला, संस्कृति और भाषा अकादमी की स्थापना की, जिसने हिमाचली भाषा और लोक कलाओं को संरक्षण प्रदान किया। उनकी पुस्तकें, जैसे ‘पॉलिएंड्री इन द हिमालयाज’ और ‘हिमाचल प्रदेश: केस फॉर स्टेटहुड’, हिमाचल की सामाजिक और राजनीतिक समझ को दर्शाती हैं। डॉ. परमार का जीवन सादगी और जनसेवा का अनुपम उदाहरण था। वे हमेशा हिमाचली वेशभूषा में नजर आते थे और स्थानीय बोली में जनता से संवाद करते थे। मुख्यमंत्री रहते हुए भी वे ग्रामीणों के बीच पत्तल पर भोजन करते और लोक नृत्यों में शामिल होते थे। उन्होंने कोई व्यक्तिगत संपत्ति अर्जित नहीं की, और उनका पैतृक मकान आज भी सादगी की मिसाल है। इस्तीफे के बाद वे एच.आर.टी.सी. की बस से अपने गांव लौटे, जो उनकी विनम्रता को दर्शाता है।
हिमाचल प्रदेश की कहानी एक पहाड़ी नदी की तरह है—जो कठिन चट्टानों को चीरकर, अपने पथ को स्वयं बनाती है। इस राज्य के गठन में डॉ. यशवंत सिंह परमार का योगदान सूर्य की किरणों के समान है, जिसने अंधेरे को चीरकर हिमाचल को विकास की रोशनी दी। उनका जीवन एक तपस्वी की तरह था, जो जनता के लिए जीया और मर गया। हिमाचल की जनता ने उनके सपनों को साकार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आज का हिमाचल शिक्षा, स्वास्थ्य, बागवानी और पर्यटन में देश का अग्रणी राज्य है, जो अपनी संस्कृति और प्राकृतिक धरोहर को गर्व के साथ संजोए हुए है।
*संदर्भ:*
– हिमाचल प्रदेश सरकार की आधिकारिक वेबसाइट (himachal.nic.in)
– डॉ. यशवंत सिंह परमार की जीवनी, भारतकोश
– हिमाचल प्रदेश का इतिहास, विकिपीडिया
– समाचार लेख और स्थानीय साहित्य




