गौरवान्वित– डाॅ माधुरी बडथ्वाल को पद्मश्री, लोकगीतों के संरक्षण को पूरा जीवन समर्पित…

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ग्राउंड जीरो से संजय चौहान।
बोलांदी नंदा पद्मश्री बंसती बिष्ट, जागर सम्राट पद्मश्री प्रीतम भरत्वाण को पद्मश्री सम्मान से नवाजे जाने के बाद एक बार फिर से पहाड़ के लोक को गौरवान्वित होने का अवसर मिला है। इस बार लोकगीतों के संरक्षण को पूरा जीवन समर्पित करने वाली डॉ माधुरी बडथ्वाल दी को पदमश्री सम्मान से सम्मानित किया जायेगा। आज दीदी आपने हमें भी गौरवान्वित होने का अवसर दिया है। दीदी को बहुत बहुत बधाइयाँ।

ऋतु मा ऋतु कु ऋतु बडी
ऋतु मा ऋतु बसंत ऋतु बडी
……….

जौ जस देवा खोली का गणेशा

ग्वीरालू फूल फूली गे मेरा भेना

रे मासी कू फूल, फूल कविलास
के देवा चढालू, फूल कविलास

जैसे लोकगीत तो महज कुछ एक उदाहरण है। उनके पास सैकड़ों लोकगीतों का खजाना है जो आज लोक से विलुप्त हो चुके हैं। इन लोकगीतों को यदि डाॅ माधुरी बडथ्वाल की लोक को चरितार्थ करती हुई जादुई आवाज में सुना जाय तो भला कौन लोकसंगीत का मुरीद न होये–?? माधुरी नें परम्पराओ को अपनी सोच के साथ सहेजने का प्रयास किया है।

गौरतलब है कि डॉ माधुरी बडथ्वाल को महज ढाई साल की उम्र से लोकसंगीत के प्रति ऐसा लगाव हुआ की वे विगत 5 दशकों से लोकगीतों के संरक्षण और संवर्धन मे बड़ी शिद्दत से जुटी हुई है। उन्होंने पिछले 50 सालों में उत्तराखंड के गाँव गाँव घूमकर लोक के असली कलाकारों को पहचाना, सैकड़ों लोगों को लोकसंगीत का प्रशिक्षण दिया। साथ ही पारम्परिक वाद्य यंत्रों मे पुरूषों के एकाधिकार को चुनौती दी और महिलाओं की मांगल व ढोल वादन टीम देते हुये नयी लकीर खींची। आकाशवाणी की पहली महिला म्यूज़िक कम्पोजर डाॅ माधुरी बड़थ्वाल नें पारम्परिक वर्जनाओं को तोड, बाधाओं को पार कर लोकगीतों के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया।

19 मार्च 1953 को जन्मी डाॅ माधुरी बड़थ्वाल जब महज ढाई बरस की थी तो लोकसंगीत के प्रति उनका लगाव शुरू हो गया था। अपनी ताई पार्वती देवी से घर के चूल्हे पर लोकसंगीत के बारे में जाना और गुनगुनाया। जबकि भुवना देवी और चंद्रमा बौ सहित गांव की अन्य महिलाओं से भी लोकगीतों का कहखरा सीखा। लोकसंगीत के प्रति इतना जुनून था कि अक्सर छुट्टी के दिन गाँव के जंगलों में गाती थी। उस जमाने में लड़कियों के गाने को अच्छा नहीं माना जाता था। लेकिन जिद और धुन की पक्की माधुरी नें अपनी मंजिल का सफर खुद ही तय किया। गाने की वजह से माधुरी के माता- पिता को बहुत कुछ सुनना पड़ा था। गाँव के पास के दूसरे गांव के शुभदास वादक, प्रख्यात ढोल सागर वादक और गब्बूदास से उन्होंने लोकसंगीत की बारिकीयां सीखी। माधुरी जब भी इनसे मिलती तो जय भैरवी- …….जय भैरवी गीत गुनगुनाती और गाती थी। माधुरी की पढ़ाई लिखाई लैंसडाउन में हुई। पिताजी श्री चंद्रमणि उनियाल जो प्रख्यात गायक व सितारवादक थे नें अपनी बेटी माधुरी को प्रयाग संगीत समिति मे विधिवत संगीत की शिक्षा दिलाई। माधुरी नें 10 वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद अपनी मेहनत से संगीत प्रभाकर की डिग्री हासिल कर ली थी जिसके बाद वो अपने ही विद्यालय राजकीय इंटर कालेज लैंसडाउन मे संगीत अध्यापिका के रूप मे कार्य करने लगी थी। माधुरी ने शास्त्रीय संगीत की विधिवत तालीम ली लेकिन मन पहाड़ के लोकगीतों में लगा रहता था। माधुरी को आकाशवाणी नजीबाबाद मे प्रथम महिला म्यूज़िक कम्पोजर के रूप मे अखिल भारतीय स्तर पर पहचान मिली। इस दौरान माधुरी ने सैकड़ो संगीत, नाटको और रूपको का कुशल निर्देशन, लेखन और निर्माण किया। जबकि गढ़वाली भाषा, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, लोकगीतो, लोकगाथाओ व कथाओं का गूढ ज्ञान भी प्राप्त किया। जबकि हिन्दी मे स्नातकोर करने के साथ ही संगीत और साहित्य का अनूठा रिश्ता बनता चला गया। पति डॉ मनुराज शर्मा का भी माधुरी को हर कदम पर साथ मिला।

मांगल टीम बनाकर ढोल वादन में महिलाओं को पंरागत कर पुरूषो को चुनौती दी।

आकाशवाणी में 32 साल कार्य करने के उपरांत सेवानिवृत्ति होने के बाद माधुरी बड़थ्वाल नें अपनी लोकसंस्कृति और लोकगीतों को आने वाली पीढ़ी तक पहुँचाने और इसके संरक्षण और संवर्धन के लिए महिलाओं की मांगल टीम बनाकर उन्हें ढोल वादन में परांगत किया। महिलाओं को ढोल वादन रूढ़िवादी परम्परा के पैरोकारो को चुनौती देना था। लेकिन माधुरी ने हार नहीं मानी और आज उनकी महिलाओं का ढोल बैंड लोगों के लिए एक नजीर है।

लोकगीतों का संरक्षण और संवर्धन जरूरी — माधुरी बड़थ्वाल!

लोकगीतों के मूल को ढूंढना होगा व पहचानना होगा। लोकसंस्कृति को बचाने का ऋण हर व्यक्ति पर है। हमारी पहचान, हमारी लोकसंस्कृति इन्हीं लोकगीतों में समाहित है। लोक में लोकगीतों का असीमित भंडार मौजूद है। लोकगीतों में जीवन के सभी संस्कार, लोकजीवन, तीज त्योहार, ऋतु और परम्परायें रची बसी है। आज सैकड़ों लोकगीत विलुप्त हो चुके हैं इसलिए इनके संरक्षण और संवर्धन को लेकर धरातलीय प्रयास किये जाने चाहिए। उत्तराखंड में जन्म लेना सौभाग्य है। जीवनपर्यंत बदरी केदार का आशीर्वाद मिला तभी जाकर में कुछ कर पाई। मेरे लिए लोकगीत महत्वपूर्ण हैं जिनमें मेरी सांसे रची बसी है। शायद जन्म भी ज़माने की बेतुकी रूढियों को तोड़ने के लिये ही हुआ है। इतनी सारी बहिनों को लोकसंगीत की निशुल्क तालीम देना आज ऐसा रंग लाया कि सरकारी, गैर सरकारी महकमों के कार्यक्रमॊं में माँगल गायन से ही शुभारम्भ हो रहा है। घर घर शादियों में माँगल गायन हो रहा है। देखादेखी अच्छी बात की है। ऐसा ही चाहती थी में, देहरादून से बाहर भी जा रही हूँ सिखाने के लिये। अब तक हजारों लोग सीख चुके हैं। बच्चे, युवा, प्रौढ्, स्त्री, पुरुष तन मन धन से सशक्त हो रहे हैं। और लोक संस्कृति का संवर्द्धन भी हो रहा है।

— लोकगीतों की शोध संस्थान ..!

लोकसंगीत और लोकगीतों पर 50 साल का शोध और अनुभव अपने आप में माधुरी को एक अनुसंधान संस्थान कहलाने के लिए काफी है। वे विभिन्न स्कूल के छात्रों से लेकर काॅलेज, यूनिवर्सिटी, और संगीत पर शोध करने वाले देश और विदेशो के शोध विद्यार्थियों का मार्ग दर्शन करती है और उन्हे लोकसंगीत की शिक्षा देती हैं। उन्होने लोक संगीत के साथ भारतीय शास्त्रीय संगीत को मिश्रित किया है। संस्कृति विभाग में लोक कलाकारों को सूचीबद्ध करने में भी डॉ माधुरी ने निर्णायक भूमिका निभाई है।

और अंत में एक बार फिर डॉ माधुरी बडथ्वाल दी को पदमश्री सम्मान के लिए चयनित होने के लिए ढेरों बधाईया। आपने हमें भी गौरवान्वित होने का मौका दिया।

Madhuri Barthwal

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